विश्व पर्यावरण दिवस - स्थानीय जैव विविधता की रक्षा आज की अनिवार्यता है
कोरोना के कारण दुनिया भर में व्यापार व्यवसाय विशेषकर उद्योगों को बंद किए जाने के बाद पर्यावरण में जो बदलाव हुए हैं उनसे जो स्पष्ट संदेश निकलता है कि मनुष्य ने प्रकृति के अंधाधुंध दोहन को नहीं रोका तो पृथ्वी को पूर्ण विनाश जल्द ही हो जाएगा। कोरोना में हुए लॉकडाउन के 15 दिनों में ही अखबारों में समाचार प्रकाशित हुए कि हिमाचल से हिमालय की चोटियां खुली आखों से दिखाई दे रही हैं। गंगा की सफाई पर अब तक सरकारों ने अरबों रुपए खर्च कर दिए थे, लेकिन उसकी सफाई हुई भी या नहीं इसका निर्णय कर पाना कठिन था। कोरोना के लॉकडाउन में गंगा बिना किसी अभियान या प्रयास के ऐसी स्वच्छ हुई कि तराई भी साफ दिखाई देने लगी। यह हमारे लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है। इसे अनदेखा किया जाना कितना घातक होगा इस बात का अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि हम प्रकृति संग जियें न कि प्रकृति को अपने संग चलने पर मजबूर करें।
इस बार का पर्यावरण दिवस कई मायनों में अलग है। दुनिया भर के गरीब और आम से ले कर अमीरों, अमीर देशों, साधन-संपन्न व्यक्तियों संस्थाओं की गतिविधियां ठप्प हो गई। मात्र एक वायरस ने ऐसा कहर ढाया कि सब कुछ थम गया। इसके लिए न तो किसी कानून की आवश्यकता पड़ी और न ही किसी मार्गदर्शी निर्देशों की आवश्यकता हुई। अमीर या गरीब, कोई भी हो दिनचर्या पूरी तरह बदल गई।
अब बात करें पूर्व और पश्चिमी सभ्यता की। दोनों ही जीवनशैली में उत्तर दक्षिण का अंतर है। भारतीय मंजूषा में या यों कहें हिंदुत्व की जीवनशैली में प्रकृति का संतुलित दोहन ही श्रेयस्कर माना गया है। इनमें खान-पान से ले कर रहन-सहन पर हमारे ऋषि मुनियों में वेद-पुराणों में पहले ही सटीक मानदंड प्रस्तुत कर दिए थे। दैनंदिन में जैसे, घर में प्रवेश करने से जूते-चप्पल आदि को घर के बाहर ही उतार कर घर में प्रवेश करना, प्रवेश करने से पहले हाथ और पैर धो लेना, व्यक्तिगत आचरण में भी हाथ मिलाने की बजाय चरण स्पर्श करना और हाथ जोड़ कर नमस्कार कर अभिवादन करना आदि शामिल है। त्यौहारों में आज भी प्रवेश द्वार पर अतिथि के स्वागत में नमस्कार मुद्रा अंकित की जाती है। अब इसके उलट देखें पाश्चात्य प्रणाली में गले मिलना, हाथ मिलाना व्यक्तिगत अभिवादन का तरीका है, जिसने भारतीय परंपरा में प्रवेश कर लिया था। भला हो कोविद 19 का जिसने भारतीयों को यह याद तो दिलाया कि पूर्वजों के अलिखित नियमों की याद दिलाई है। जबकि आज कानूनों में लिखे जाने पर भी उनका परिपालन करवा पाने में तंत्र के हाथ पांव फूल जाते हैं।
इस समय की सबसे गंभीर समस्या यह है कि स्थानीय जैव विविधता की घोर उपेक्षा की प्रवृत्ति मानव ने अपना रखी है। प्रत्येक स्थान की अपनी पारिस्थितिकीय महत्ता होती है। जो चीज भूमध्य रेखा पर जीवन के लिए आवश्यक हो जाती है वह उत्तरी ध्रुव पर जरूरी नहीं रहती। प्रकृति की अपनी व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत समुद्र, धरती, आकाश चलायमान है। आकाश में जहां ओजोन की परत धरती की रक्षा करती है, वहीं समुद्र की अपनी पारिस्थितिकीय व्यवस्था है। समुद्र में इसी व्यवस्था के अंतर्गत समुद्री जीव जंतु का जीवन संचालित होता है। समुद्र में मानव को रहना होगा तो उसे अपने अनुसार व्यवस्था बनानी होगी। यही प्रकृति पर मानव हस्तक्षेप है। धरती की अपनी पर्यावरणीय परिस्थितियां हैं, जो भौगोलिक स्थितियों के अनुसार बदलती जाती है। जैसे अमेजन के जंगल और चेरापूंजी वर्षावन का क्षेत्र हैं तो मैदानी भागों में मौसम समय समय पर बदलता रहता है।
अब बात करेंगे हमारे अपने आसपास के पर्यावरणीय नुकसान की। अकसर हमारे कर्णधार और राजनेता देश को गांवों और कृषि व्यवस्था वाला देश कहने का दम हमेशा भरते रहते हैं। इसके उलट गांवों को समाप्त कर नगरों और औद्योगिक नगरी बनाने का काम आज हमारे राजनेता निरंतर कर रहे हैं। अब तो यह कहने में गुरेज नहीं कि हमारे गांव नगरों और उद्योगों के डस्टबिन बनते जा रहे हैं। यह सब महज तात्कालिक आर्थिक लाभ के लिए ही होता आ रहा है। प्रकृति की व्यवस्था में निस्तारी, पेयजल, मैदान मानव जीवन के लिए आवश्यक है। यही पर्यावरण का आधार भी है।
इस समय राजधानी रायपुर का बूढ़ातालाब पूरे प्रदेश में चर्चा में आ गया है। यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी ऐसे काम होते आ रहे हैं चाहे वह मरीन ड्राईव, हो नालंदा परिसर हो, नवा रायपुर मंत्रालय के पास बने उद्यान में विदेशी पेड़ों को लगाया जाना या अब बूढ़ातालाब से लगे स्कूलों सप्रे और दानी गर्ल्स स्कूल और डिग्री कॉलेज के मैदानों पर निगम प्रशासन का ताज़ा अधिग्रहण। प्राणवायु देने वाले पेड़ों जिनमें आम, इमली, पीपल, बरगद, नीम, आंवला, महुआ ऐसे पेड़ जिनका जीवन लंबा होता था और अनेक जीव जंतुओं, पशु पक्षियों का डेरा भी अब नगरों में दिखाई नहीं देते हैं। पूर्वजों ने आने वाले समय के लिए इन्हें लगा कर ऐसी व्यवस्था बनाई थी कि अब तक ये पेड़ पौधे हमें जीवन देते और पर्यावरण तथा स्थानीय जैव विविदता को संरक्षित करते आ रहे थे। लेकिन बीते कुछ वर्षों में आधुनिकता की रौनकता में ऐसे गुम हुए कि इन पेड़ों को नष्ट कर उन विदेशी पेड़ों को यहां ला कर स्थापित किया जा रहा है। इससे स्थानीय जीव जंतुओं सहित मानव जीवन को जो नुकसान हो रहा है वह कल्पनातीत है। यह हानि भले ही हमें खुली आंखों से दिखाई नहीं दे रही, परंतु यह इतनी घातक है कि अब शहरों से कौओं, चील, बाज, गौरैया, कबूतर, मैना, बगुला आदि लगभग विलुप्त हो चुके हैं। बूढ़ातालाब पर गौरतलब है कि निगम प्रशासन की नई व्यवस्था से सुंदरता तो बढ़गे लेकिन इसके कारण जलचर जीव जंतु यहां से विलुप्त हो जाएंगे, जो कि स्थानीय पर्यावरण के संतुलन के लिए खतरा साबित होगा। शहरों में बनाए जा रहे ऑक्सीजोनों में भी विदेशी प्रजाति के पेड़ों की प्रमुखता है जो हरियाली तो देते हैं परंतु मानव-पशुओं को प्राणवायु सुलभ नहीं कर सकते।
पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता पर चिंतित दूधाधारी मठ के पीठाधीश राजेश्री डॉ. महंत रामसुंदरदास जी महाराज के अनुसार उद्यानों, तालाबों, खेल मैदानों पर कब्जे और पेड़ों को काट कर सरकार तात्कालिक लाभ तो ले रही हैं परंतु भविष्य की मानव सभ्यता को ताबूत में बंद करने का काम कर रही हैं।
महंत जी की कही उक्त बातें उस सामाजिक पीड़ा का बयान करती है जिसकी निरंतर उपेक्षा निहित स्वार्थों के लिए आज राजनेता कर रहे हैं। यह मानव जाति के लिए बड़ी भूल साबित होगी। हमें अब चेत जाना चाहिए कि तात्कालिक लाभ के लिए किए जा रहे पर्यावरण के हनन को रोकने के लिए हम पूरी सक्रियता से आगे आएं। नहीं, तो आने वाला भविष्य और आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।
Leave a comment